मंजू मल्होत्रा फूल
छोड़-छोड़ सब छोड़ चुके हो, फिर कैसे जी पाओगे छोड़ अपने संस्कारों को उठ नहीं फिर पाओगे
अपना हम खुद ही ना पढ़ते, बरसों पुराना इतिहास है दूजे पढ़-पढ़ हमको बतलाते उनके सिर पर ताज है
मेरी गीता, पुराण मेरे, वेद, योग सब मेरा है ज्ञान का सागर यह सारा, सारा का सारा मेरा है
हम खुद ही अपने अपनों से आंचल छुड़ाकर बैठे हैं आदि पुरुष, सृष्टि रचयिता, गंगोत्री भुलाकर बैठे हैं
संस्कृत लुप्त, संस्कृति भी देखो लुप्त हुए अब जाती है पृथ्वी की स्थिरता को अस्थिर बनाती जाती है
पढ़-पढ़ के हम तो देखो वास्तविकता भुलाते जाते हैं आसमान में उड़ते जाते पृथ्वी को ठोकर लगाते हैं
भूमि से जुड़ना अच्छा है, इतिहास भी जरा अब जाने हम संस्कृत, हिंदी और पुरानी संस्कृति को पहचाने हम
सृष्टि की रचना से पहले वेद रचित हो जाते हैं प्रभु व्यास अवतार में पुनः उन्हें मानव के लिए सरल बनाते हैं
श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध में गीता का उपदेश दिया मानव जीवन जीने का और कर्मों का मार्ग दिखा दिया
ज्यादा नहीं थोड़ा ही जाने, अपना खुद से जाने हम रामायण, महाभारत जैसे इतिहास पुराण पहचाने हम
प्रतीकों को पहचानो खुद से ज्ञान का सागर भरा पड़ा चाहे शुरू में लगता हो तुमको अंधविश्वासों से जड़ा हुआ
पढ़ते-पढ़ते गांठे खुलती स्वच्छ हवा फिर बहती है प्रकृति रचना की, जीवन जीने की, कला यह तुमसे कहती है
इक-इक पन्ना हर ग्रंथ का नित नए अर्थ बतलाता है जीवन को जीने की फिर यह शैली नई सिखलाता है