चंडीगढ़
6 मार्च 2017
विनोद कुमार
पंचकूला में रहने वाले श्री वीपीएस राव ने ही में पिंजौर में आयोजित अंतर्राष्टीय महिला दिवस पर विशेष कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए अपने अध्यक्षीय भाषण में सर्वप्रथम 2001 में अंतर्राष्टीय महिला दिवस को ‘मातृ शक्ति पर्व’ का नाम दिया था। अध्यात्म-संस्कृति रत्न से सम्मानित और संस्कृति बोध संघ के संस्थापक श्रीराव कई पुस्तकें लिख चुके हैं। जिन पर कई स्कॉलर्स ने शोध कार्य किया है तथा कई कर रहें हैं।
डॉ. विनोद कुमार ने उनके निवास स्थान पंचकूला जाकर इस दिवस पर गहराई से विशेष चर्चा के लिए मुलाकात की और अंतर्राष्टीय महिला दिवस कई महत्वपूर्ण तथ्यों पर विचार साँझा किये। श्रीराव ने बताया कि यह नाम भारतीय सन्दर्भ में अधिक उपयुक्त है। पश्चिमी देशों में महिलाओं को ‘वीकर सेक्स’ माना जाता है। वहां महिलाओं ने अपने अस्तित्व की पहचान को सशक्त करने के लिए कई अभियान चलाए और निश्चित किया कि अंतर्राष्टीय महिला दिवस पर इकठ्ठा होकर योजनाबद्ध नीति से महिलाओं के अधिकारों की मांग की जाये और महिला सशक्तिकरण के लिए हर संभव प्रयत्न किये जाएं किन्तु भारतीय संस्कृति में नारी को शक्ति माना गया
है। यहाँ शक्ति के रूप में नारी की पूजा हुई है। नारी के विभिन्न रूपों जैसे बेटी, बहन, पत्नी इत्यादि में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण मातृ रूप है। इसलिए इस दिवस को यदि महत्वपूर्ण बनाना है तो इसका नाम मातृ शक्ति पर्व होना चाहिए। महिलाओं के अनेक प्रकार के योगदानों में उनकी ‘माता’ के रूप में जो अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका है वह वास्तव में ही अद्वितीय है, उसका सम्पूर्ण मानव समाज में कोई जोड़ नहीं।
नारी सम्यक की जननी ही नहीं अपितु उसके बहुर्मुखी विकास में पुरुष की अनिवार्य सहयोगिनी भी है और ईश्वरीय विधान के अनुसार मानव जाति को वांछित
दिशा में अग्रसर करने हेतु महत्वपूर्ण माध्यम। श्रीराव ने बताया कि यह ठीक है कि दैव ने नर- नारियों को सामान्यतः जोड़ों के रूप में भेजा है। एक दूसरे के अभाव में वे दोनों ही अपूर्ण हैं और दोनों के जीवन की सार्थकता प्रतिकूलता में नहीं अनुकूलता में है, शुष्कता में नहीं माधुर्य में है और वियोग में नहीं संयोग में है। अतः व्यापक रूप में समाज- कल्याण दोनों के लिए मिलजुल करना ही वांछित हैं, जिन्हें भारतीय ऋषियों, मुनियों, मनीषियों और समाज- शास्त्रियों ने बड़े गहन एवं सूक्ष्म अध्ययन , मनन, चिंतन और अनुसन्धान के पश्चात प्रकट किया है, जो पाश्चात्य बुद्धिजीवी नहीं कर सके। यही कारण है कि वहां अनेक प्रकार के सुख साधनों, प्रसाधनों, इत्यादि के होते हुए भी अशांति और तृप्ति का साम्राज्य है। संतुष्टि और संतृप्ति की खोज में वे भारतीय संतों, महात्माओं की शरण में आते हैं। दुःख से छुटकारा और सुख की प्राप्ति हेतु मानव मन और प्राकृतिक रहस्यों का जो अत्यन्त उच्चकोटि का अध्ययन, अवलोकन और विश्लेषण भारतवर्ष में हुआ है उसी के कारण इसकी एक अपनी पहचान है।
श्रीराव ने कहा कि भारतीय महिलाएं इस क्षेत्र में सम्पूर्ण महिला- समाज का मार्ग दर्शन कर सकती हैं। भारतीय महिलाओं को भी वास्तविक पहचान पाश्चात्य विचारधारा, तौर – तरीकों, रहन- सहन के ढंगों, वेश- भूषा, आचार- व्यवहार का अनुगमन करने में नहीं, अपितु अपनी निजी संस्कृति को भली -भांति समझ – बूझ कर , उस पर चलकर, उसे व्यवहार में ला कर, उनका मार्गदर्शन करने में है। इसलिए भारतवर्ष में 8 मार्च को मातृ शक्ति पर्व के रूप में ही मनाना चाहिए।