“मां”

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‘मां’ का वर्णन करने की  योग्यता मुझ जैसे अदने से लेखक में तो कहां मिलेगी ओर ना ही मुझे कोई ऐसा शब्दकोश दिखाई देता है जो मां के किरदार का विस्तार से वर्णन कर सके। समुंदर की गहराईयों से भी गहरी, ममता से भरी, करुणामयी इस धरा पर अगर कोई विराजमान है तो वो है पूजनीय “मां”।मैं उन लेखकों में से नहीं हूं जिनको दुनिया जानती है और ना ही मैं उन महापुरुषों के पांवों की धूल के ही समान हूं जिनके द्वारा लिखे गए शब्दों का उच्चारण करने मात्र से ही एक सुखद अनुभव होता है। मेरा ऐसा मानना है की हर नन्हे बच्चे की “माँ” ही दुनियां है और सारा संसार भी उसे “मां” के आगे छोटा नज़र आता है। समय के बदलाव के साथ साथ बहुत सी चीजें बदली ओर आजकल वैसे ही समाज में अपने माता, पिता, गुरुओं की यादगार हर वर्ष मनाने के लिए कोई ना कोई दिन का चयन किया गया जिस दिन हर कोई उनको शुभकामनाएं/श्रदांजलि दे सके।   “मां” की याद में 13 मई का दिन निर्धारित किया गया जिसे “मदर्स डे” के रूप में मनाया जा रहा है।लेकिन “माँ” तो हर सांस में बसी है तो फिर यह कहना की आज “मां” का दिन है अपने आप में बहुत छोटा महसूस होता है। “माँ” दूर है या पास, जीवित है या सवर्ग में वास कर रही है, हर पल उसका एहसास होता है और लगता है की वो हमारे पास है।
जननी जन्म भूमि स्वर्ग से महान है इसलिये कहा गया है की इस धरती पर ना केवल मानव जाति का ही जन्म हुआ है अपीतु धरती पर जन्म लेने वाले पशु,पक्षी, वनस्पति, जंगल,पहाड़ ओर झरने आदि भी हैं। मानव जीवन का संचार भी इसी वसुंधरा की देन है।  जन्म भूमि यानी की वो मिट्टी जिस के होने से हमारी ” मां  ” का जन्म  हुआ वो सबसे पूजनीय है ओर दूसरे शब्दों में हम इसे मातृभूमि ओर देश भी कहते हैं।  बच्चे का जन्म भी माता के पेट से ही होता है और जन्म देने से पहले कोई भी “मां”अपने बच्चे को 9 महीनों तक अपने पेट में ही रखती है और इस लिए बच्चे का( लड़का/लड़की ) सम्बन्ध उसकी “मां” के साथ धरती पर उसके जन्म लेने से पूर्व ही स्थापित हो गया होता है। मां की कोख में 9 महीने तक रहने के बाद बच्चे को संसार में आने का सौभाग्य प्राप्त होता है। माँ की कोख में 9 महीने  तक रहने से ” मां बच्चे ” में जो रिश्ता बनता है, हर सांस का एहसास होता और ” मां ” के अंदर बच्चे के प्रति जो ममता जागृत होती है उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता।
बच्चा पैदा होने के बाद सबसे पहले “मां”शब्द ही बोलता है। जन्म के बाद बच्चे का आहार उसकी माता के दूध से ही शुरू होता है। बच्चों को पालने के लिए मां को दिन रात तपस्या करनी पड़ती है। रातों को जागना पड़ता है, बच्चे को साफ रखना, उसका मल मूत्र उठाना, समय पर नहलाना, समय पर सुलाना ओर समय पर उसे दूध पिलाने के लिए”मां” इतना व्यस्त हो जाती है की उसे अपनी कोई सुध बुध ही नहीं रहती। धीरे धीरे बच्चे बड़े होने लगते हैं और फिर”माँ” को उनको स्कूल भेजने के चिंता घेरे रेती है। हर “मां” चाहे वह ग़रीब हो या अमीर हो उसे यही चिंता रहती है की उसका बच्चा अच्छे स्कूल में पढ़े, पढ़ लिखकर एक बड़ा आदमी बने ओर इसीलिए अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार हर “माँ” अपने बच्चे को बेहतरीन स्कूल में दाखिला दिलवाने  की कोशिश करती है।
बच्चे तो रात को समय पर सो जाते हैं लेकिन उनकी मां को नींद कहाँ आती है। रात को सोने से पहले बच्चों के स्कूल बैग ओर बच्चों ने स्कूल में सुबह जो स्कूल ड्रेस डालकर जानी होती है उसे तैयार कर के रखती है। बच्चों के उठने से पहले वह सुबह उठ जाती है, पहले उनका सुबह का नाश्ता तैयार करती है, उनको नहा धुला कर  लाती है, ब्रेकफास्ट करवाती है, बच्चों के लिए लंच बॉक्स का प्रबंध करती है ओर बच्चों के स्कूल बैग में डालकर उनको बस्ता थमाती है। बच्चे जब तक छोटे हैं तब तक उनको स्कूल बस तक छोड़ने ओर लाने का काम भी करती है। स्कूल से छुटी के बाद बच्चों को स्कूल के काम करने में भी मदद करती है। “माँ” ही है जो बच्चों के अंदर अच्छे संस्कारों को भरती है। वह बच्चों को सच्चाई का मार्ग अपनाने को कहती है, गुरु और बड़ों का आदर करना सिखाती है, मेहनत करना, एक दूसरे से प्रेम करना, इर्ष्या से दूर रहना और अपने देश और मातृभूमि के प्रति वफादार रहने का पाठ पढ़ाती है। कहते हैं की बच्चे “मां” में ओर “माँ” बच्चों में बसती है लेकिन “,मां” द्वारा जैसे भी संस्कार बच्चों को दिए जाते है वही संस्कार बच्चों के साथ सारी उम्र चलते हैं।
जैसे जैसे बच्चे बड़े होते गए उनकी ज़रूरतें भी बढ़ती जाती हैं ओर बच्चों के प्रति “मां” की चिंताएं भी बढ़ने लगती हैं। स्कूल की पढ़ाई खत्म कर बच्चे कालेज पहुंचते हैं तब घर के खर्चे बड़ने शुरू हो जाते हैं लेकिन “माँ” कभी बच्चों को किसी चीज़ की कमी नहीं होने देती, खुद तंग रह कर भी बच्चों की ज़रूरतों को पूरा करती है। बच्चे जब भी कालेज से आते उनको ताज़ा खाना बना के परोसती है ओर बच्चों ने जो झूठा छोड़ दिया उसी को खाकर तसल्ली कर लेती है । बच्चे बीमार हैं तो उनको डाक्टर के पास ले जाती लेकिन खुद बीमार हो कर भी बच्चों से अपनी बीमारी छुपाती है ताकी बच्चे परेशान ना हो जाएं। बेटा जब रात को देर से आए तो दरवाज़े के अंदर बार चक्कर लगाती रहती और आधी रात तक जागने के बाद भी उसे खाना बना कर खिलाती है। बेटे की गलतियों को बर्दाशत करने और माफ करने की हिम्मत केवल “माँ” के पास ही है।बेटे/बेटी की जब नौकरी लगती तो परमात्मा का शुक्र करतीहै, मंदिर में प्रसाद चढ़ाती है ओर खुशी से फूली नहीं समाती।  बेटी की शादी हो जाने पर सदैव उसके सुखी जीवन की कामना करती है । बेटे की शादी होने के बाद “मा” से सास बन जाती है और कुदरती है की “मां और बेटे” के प्यार में थोड़ा सा अंतर आता है क्योंकि बेटे का प्यार “माँ और पत्नी” में बंट जाता है ओर “मां” के जीवन में यह एक बड़ा परिवर्तन कहलाता है।फिर जब पोते/पोतियां घर में आते हैं और यह फिर जब “मां” से उसे नानी बनने का सौभाग्य प्राप्त होता है तो “माँ” से बनी दादी/नानी का प्यार सूद सहित वापिस लौट आता है और वह बच्चों के बच्चों की होकर, उनसे घुल मिलकर अपने जीवन के आखरी पलों को सुनहरा बना लेती है। इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता की “मां” अपना सारा जीवन अपने बच्चों पर ही न्यौछावर कर देती है।
        “मां” तो वो पेड़ है जो सारी उम्र बच्चों का पालन पोषण करता है, उनको फल देता है, धूप और वर्षा से उनकी रक्षा करता है और बदले में सिवाए प्यार के चंद बोलों के इलावा  कुछ भी लेने की आशा नहीं रखता। कई बच्चे “मां” की इज़्ज़त नहीं करते और बुढ़ापे में उसके साथ बुरा व्यवहार करते हैं लेकिन “मां” कभी भी अपने बच्चों का बुरा नहीं सोचती, हमेशा उनके लिए दुआएं ही देती है। कहावत है की “पूत कपूत होत है मात नाँ हो कुमात” यानी की अगर बेटा बुरा व्यवहार भी करता है तो भी माता उसका भला ही मांगती है ओर उसका बुरा नहीं चाहती। उनसे पूछ के देखो जिनकी “मां” नहीं होती की “मां” किसे कहते हैं। अंधकार को उजाले में परिवर्तित करने वाली, बच्चों के अंदर अच्छे संस्कारों को भरने वाली संसार की हर ” मां ” को शत शत नमस्कार।
         ” मां की कोख से हम दुनियां में आए,
           हमें पालने में मां ने कितने कष्ट उठाए,
           मां के दूध का कर्ज ना कोई चुका पाए,
           बेटा इतना तो करे,मां वृदाश्रम ना जाए।”
बृज किशोर भाटिया,
चंडीगढ़

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