“घर भी तेरा दर भी तेरा”

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यह घर भी तेरा है भगवन ये दर भी तेरा है,
हम तो मुसाफिर हैं, कुछ पल का बसेरा है।
           मिट्टी से बनें हम सब दुनिया में विचरते हैं,
           सेल पे लगे हैं सभी भिन्न भावों में बिकते हैं,
           हम समझें जिसे अपना वो सब भी तेरा है।
यह घर….
भूमी, गगन, वायु, अग्नि ओर नीर में  बसा  है तूं,
कण कण में , पौधे,पशु,कीड़े ओर प्राणी में है तूं,
देखा नहीं  किसीने  फिर अहसास क्यूं तेरा है।
यह घर……
हर कोई  जग में  किसी मकसद से आता  है,
मकसद पूरा हुआ यहां से कूच कर जाता है,
कर्म जैसा भी करे कोई फल वैसा  पाता है।
यह घर…….
कोई मेहनत करे जग में, कोई मांग के खाता है,
बंधा हर रिश्तों की डोरी से यह कैसा नाता है,
जन्म लेते जो रोता हंसकर छोड़ जग जाता है ।
यह घर भी तेरा है भगवन ये दर भी तेरा है,
हम तो मुसाफिर हैं, कुछ पल का बसेरा है।
बृज किशोर भाटिया,चंडीगढ़

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