कष्टों की ये रात है काली बड़ी भयानक दिखती है
पर देखो हौसलों के आगे कठिनाइयां नहीं टिकती हैं
इक-इक दिन जो बीतेगा तो उजियारा फिर खिलना है
सुबह-सुबह चिड़िया की चीं-चीं सुनहरा सा सूरज मिलना है
नीला-नीला अंबर हो फिर से यह धरती मां चाहती है
इस कष्ट की घड़ी में खुद के जख्मों पर मरहम लगाती है
रातों को अंबर पे देखो तारे अब टिमटिमाते हैं
धूल की काली परत के पीछे से झांक-झांक मुस्काते हैं
छिपा दिया था हमने वो नजारा धुआं धूल उड़ाया था
अपने सुखों की खातिर सारे पर्यावरण का मजाक बनाया था
याद नहीं रहता है हमको पंछी को भी जीना है
जलचर, पशु और कीट-पतंगे, सांस उन्हें भी लेना है
पर्वत, नदियां, झरने सारे कर्मों से हमारे त्रस्त हुए
भौतिक सुख हमें देते देते सारे तंत्र व्यस्त हुए
दोहन हम दिन रात हैं करते प्रकृति को थे भूल गए
भूल पे भूल और फिर भूल मानवता को ही भूल गए
इक मां की संताने हैं हम मानवता से नाता हो
इस कष्ट की घड़ी में दिल का दूजे दिल से नाता हो
आज का समय कुछ ऐसा आया दिल से हमको जुड़ना है
अपनी धरती माता की खातिर त्याग भी कुछ कुछ करना है
आत्म संयम और नियंत्रण खुद पे नया सवेरा लाएगा
मानव अस्तित्व पे आया संकट जल्द ही फिर टल जाएगा
आगे भी ये याद रखें हम पर्यावरण को सुरक्षित रखना है
इक छोटा सा कर्म हमारा हमको ही वापस मिलना है
प्लास्टिक का उपयोग न करना अपना कर्म सुधारें हम
बूंद बूंद से घड़े को भरना फिर चमत्कार निहारे हम
अभी घर में रहते हम सबको निकटता प्रभु से बनानी है
राष्ट्र सुरक्षित फिर मेहनत करके अर्थव्यवस्था उठानी है
कष्टों की ये रात है काली बड़ी भयानक दिखती है
पर देखो हौसलों के आगे कठिनाइयां नहीं टिकती हैं
लेखिका: मंजू मल्होत्रा फूल