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ऊँचा उठने की खातिर,नीचा गिर रहे थे हम,
झूठी शान की खातिर,खुद को ठग रहे थे हम ।
झुके उनके आगे हम बिना किसी बात के ,
मैदान छोड़ भागे हम बिना खाये मात के।
नौकरी की खातिर चमचागिरी में पड़ गए,
दिन रात मनिस्टरों की सेवा में निकल गए।
चुनाव में अबकी बार मिनिस्टर लुढ़क गये,
वह तो मिनिस्ट्री से, हम नौकरी से भी गये ।
समझा अब , कदर ज़माने में मिलती है काम से,
मेहनत से फल मिलता हैं ना फ़रमाने आराम से।
कोई भी फर्क नही पड़ता राह में मुश्किलों के आने से,
भरोसा है तो रोक नहीं सकता कोई मंज़िल को पाने से।
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बृज किशोर भाटिया,चंडीगढ़
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