“नशा”

0
1858
मै  चल पडा  मंजिल की तरफ
पर  राहें थी मेरी काँटों से भरीं
पग पग पर मुझे लगती ठोकर
गिरा, फिर चला खा कर ठोकर
कई बार गिरा लिपटा धूल में
कितना लहु लिपटा चेहरे पर
कोहनीयां भी जख्मी हूई मेरी
घुटनों की चपनियां हुंई फटर
हालत मेरी धुत शराबी सी बनी
जो लुडका नाले में होश खोकर
शराबी होता तो मैं पडा रह्ता
मुझे नशा था मंजिल पाने का
हिम्मत जुटाकर आगे बडा
जरा सम्भलके मैं चल पडा
धुंद्ला कोहरा भी छट पडा
मैं मंजिल पे था हुआ खडा
-बृज किशोर भाटिया,चंडीगढ़

LEAVE A REPLY

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.