मूर्ख हूँ मैं दाता मेरी रख लेना आन,
ज्ञानियों की नगरी में, हूं मैं नादान ।
नेता नहीं मैं ना दे सकूं कोई भाषण ,
जनता में बांटूं ना मैं मुफ़्त का राशन।
किसी के लिए भी गन्दी करुं ना ज़ुबांन,
बड़ा ना बनूं मैं, बनाना मुझे इंसान।
छोटों को समझ सकूं बड़ों को दूं मान,
लालच में आकर ना डोले मेरा ईमान।
गलत चाल वालों को सकूं मैं पहचान,
काम ठीक कर सकूं ना बनूं मैं शैतान।
दुखियों के दुख हमेशा मैं बांटता रहूं,
आंसू पोंछ कर उनको खुशी दे सकूं।
कभी भी मुझ में ना आए अभिमान,
राह से भटकूं तो ले लेना मेरे प्राण।
बृज किशोर भाटिया, चंडीगढ़