“सांसें बंद होने तक”

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मेरे दिए की लौ यूं टिमटिमा रही है,
ज़िन्दगी हाथों से फिसले जा रही है।
         पर मुझे भी हार स्वीकार नहीं है,
         ज़िन्दगी से मानी मैनें हार नही हैं।
बुझती लौ को मुझे फिर जलाना है,
रुकना नहीं मुझे अब चलते जाना है।
         मेरे अपनों की दुआएं मेरे साथ हैं,
         डॉक्टरों के मशवरे भी मेरे पास हैं।
दुआओं ओर दवाओं के सहारे जीना है,
मरना नहीं मुझे अब खुलकर जीना है।
          दिल की धड़कन भी धीमी चल रही है,
          मेरी सांसें भी रुक रुक कर चल रही हैं।
ई.सी.जी. अब भी मिस बीट्स दिखाती है,
हार्ट पम्पिंग दवा की डोज़ बढ़ती जाती है।
         सांसे बंद होने तक ही”बृज”जिंदगानी है,
         सांसे चलने तक ही बस तेरी कहानी है।
बृज किशोर भाटिया, चंडीगढ़

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